राजनांदगांव – आज आधुनिक युग के दौर में दुनिया कहां से कहां पहुंंच गई है।  इंसान मंगल और चांद पर जीवन खोज रहा है, लेकिन कुछ रूढ़ीवादी परंपराएं अभी भी वहीं की वहीं हैं।  हालांकि शिक्षा, जागरूकता और विकास की पल-पल बदलती परिभाषा ने उसमें कुछ बदलाव जरूर ला दिया है। 


हम बात कर रहे हैं महिलाओं के जीवन में होने वाले उस बदलाव की जो प्रकृति ने बनाया है और जो प्रजनन चक्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन इस शारीरिक प्रक्रिया को कुछ इलाकों में आज भी अपवित्र और छुआछूत की नजरों से देखा जाता है। 


सूबे के राजनांदगांव जिले के मानपुर ब्लॉक के करीब 70 गांव की कुछ आदिवासी महिलाएं पुरानी परंपरा की बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं।  यहां की महिलाएं माहवारी के उन दिनों के दौरान अपने घर में नहीं बल्कि घर के बाहर एक अलग कुटिया में रहती हैं।  इसी कुटिया में उनकी रसोई भी बनती है और पहले वे 5 दिनों के बाद सिर से नहाने के बाद अपने घर में प्रवेश करती थीं, हालांकि अब ये 5 दिन एक दिन में तब्दील हो गया है। लेकिन महिलाओं की परेशानी कम नहीं हुई हैं। 

इतना जरूर है की आज गांव हो या शहर महिलाएं अब पहले जैसे नहीं रही है।  अब महिलाएं जागरूक हो चुकी हैं।  शायद इसी वजह से उन 5 दिनों में अलग कुटिया में दिन बिताने वाली कुछ महिलाएं अब एक रात या कुछ देर रहने के बाद अपने घर चली जाती हैं, वहीं कई गांवों में ये भी देखने को मिला है कि महिलाएं अलग कुटिया में न रहकर घर में ही रहती हैं। 

सहगांव की फग्गू बाई जाड़े का कहना है कि पीरियड्स आने के बाद वे घर के बाहर कुटिया में चली जाती हैं और फिर नहाने के बाद अपने घर जाती हैं।  वहीं गांव की मितानिन का भी कहना है कि पहले महिलाएं घर के बाहर कुटिया में 3 दिन तक रहती थी, लेकिन अब ये सिलसिला काफी कम हो गया है और महिलाएं माहवारी के दौरान भी घर में ही रह रही हैं। 

हम ऐसी भी घटनाओं का हिस्सा बने हैं, जिसमें पीरियड्स के दौरान घर के बाहर बनी झोपड़ी में रहने पर महिला की मौत हो जाती है।  गांव में जहां सैनिटरी पैड्स नहीं मिलते, वहां महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल कर या फिर पत्ते और राख यूज करके जान जोखिम में डालती हैं।  उम्मीद है कि बदलता वक्त लोगों की सोच भी बदल देगा। बहरहाल इन दिनों लॉकडाउन के चलते गाँव में सेनेटरी पेड की उपलब्धता का अभाव हैं इसके चलते भी महिलाओं को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा हैं ।

sources