Joharcg.com हाल ही में नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि हम धरती के बढ़ते तापमान को थामना चाहते हैं तो हमें अपने जीवाश्म र्इंधन के 90 प्रतिशत आर्थिक रूप से व्यावहारिक भंडार को अछूता छोड़ देना पड़ेगा। जलवायु सम्बंधी पैरिस संधि में कहा गया है कि धरती का तापमान औद्योगिक-पूर्व ज़माने से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है। और इस लक्ष्य को पाने के लिए वर्ष 2100 से पूर्व दुनिया में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 580 गिगाटन से ज़्यादा नहीं हो सकता। यदि इसे मानें तो, युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के पर्यावरण व ऊर्जा अर्थ शास्त्री डैन वेलस्बी ने गणना की है कि हमें 89 प्रतिशत कोयला, 58 प्रतिशत तेल और 59 प्रतिशत गैस भंडारों को हाथ लगाने की सोचना भी नहीं चाहिए। और तो और, उनके मुताबिक ये सीमाएं और कठोर बनानी पड़ सकती हैं।
दरअसल, यह नया अध्ययन 2015 में विकसित एक मॉडल को विस्तार देता है। वह मॉडल धरती के औसत तापमान को उद्योग-पूर्व काल से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक होने से रोकने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर बनाया गया था। लेकिन वेलस्बी का मत है कि 2 डिग्री की वृद्धि बहुत अधिक साबित होगी।
वेलस्बी के मॉडल में सारे प्राथमिक ऊर्जा स्रोतों को ध्यान में रखा गया है – जीवाश्म र्इंधन, जैव-पदार्थ, परमाणु तथा नवीकरणीय ऊर्जा। मॉडल में मांग, आर्थिक कारकों, संसाधनों के भौगोलिक वितरण और उत्सर्जन जैसी सभी बातों को शामिल किया गया है और देखा गया है कि समय के साथ इनमें क्या परिवर्तन आएंगे। मॉडल में ऋणात्मक उत्सर्जन टेक्नॉलॉजी (यानी वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने) पर भी ध्यान दिया गया है।
वेलस्बी के मॉडल के मुताबिक वर्ष 2050 तक तेल व गैस उत्पादन प्रति वर्ष 3 प्रतिशत कम होते जाना चाहिए। वैसे इस संदर्भ में क्षेत्रीय अंतर भी देखे जा सकते हैं। इसका मतलब होगा कि अधिकतम जीवाश्म र्इंधन उत्पादन इसी दशक में आ जाएगा।
मॉडल में वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने की रणनीतियों पर भी विचार किया गया है। ऐसी टेक्नॉलॉजी से आशय है कि पहले आप वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ें और फिर उसे हटाने के उपाय करें। लेकिन कई वैज्ञानिकों के अनुसार यह जोखिमभरा हो सकता है। उनके मुताबिक इसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि हम समस्या को थोड़ा आगे सरका रहे हैं। क्योंकि उत्सर्जन तो बदस्तूर जारी रहेगा।