vadya yantra
Chhattisgarh ke vadya yantra
हमारे यहाँ विवाह में पन्द्रह प्रकार के रसम होते हैं। आज के लोग – अगर पूछेंगे एक रसम के बारे में – क्योंकि वह वाद्य नहीं बजते – अगर वाद्य नहीं बजते तो उनको परम्परा के बारे में क्या मालूम – ये सब है – बहुत दुख होता है – हमारे यहाँ के सब पाश्चात्य संगीत के पीछे भाग रहे हैं लेकिन उनको ये नहीं मालूम कि हमारे वाद्य कई मीठे हैं, जो हमारे पूर्वजों ने तैयार किया है – यही हमारा जो धरोहर है, उसमें इतना मीठासपन है मधुर आवाज है छत्तीसगढ़ में कई वाद्य लोक प्रचलित हैं और कई वाद्य दुर्लभ हैं।
माड़िया ढोल –
वाद्यों – ये एक माड़िया ढोल है। ढाई फिट लम्बाई का, डेढ फिट गोले का ढोल होता है – लकड़ी का इसका खोल होता है। और दोनों तरफ चमड़े से इनको मड़ा जाता है। एक तरफ को गत कहते है और एक तरफ को तालि,। गत के तरफ एक साहि लगी होती है जिसके आवाज़ में गमक होती है। और ताली होता है जो कर्कश होती है। गले में लटकाकर हाथ से आघात करके बजाते हैं।
मृदंग –
मृदंग बहुत ही प्राचीन वाद्य है। इनको पहले मिट्टी से ही बनाया जाता था लेकिन आजकल मिट्टी जल्दी फुट जने और जल्दी खराब होने के कारण लकड़ी का खोल बनाने लग गये है। इनको उपयोग, ये ढोलक ही जैसे होते है। बकरे के खाल से दोनों तरफ छाया जाता है इनको, दोनों तरफ स्याही लगाया जाता है। हाथ से आघात करके इनको भी बजाया जाता है।
नगाड़ा –
इसे नगाड़ा कहते है। नगाड़ा तो और भी देशों में होता है – लोकिन हमारे यहाँ नगाड़ा का उपयोग अलग ही तरीके से किया जाता है। होली का त्यौहार बड़ धूमधाम से मनाते है, रंग गुलाल खेलते हैं। ये नगाड़ा जोड़ो में होता है। डंडे से इस आधाम करके गाते है, फाग गीत गाते हैं। उसमें इनका उपयोग करते हैं। raipur
हिरनांग –
इसमें पन्द्रह घण्टी और बड़े बड़े धुधडु से, चमड़े का एक बेल्ट होता है, उसमें पिरोया जाता है। इनको कमड़ में बांधका और कमड़ हिलाकर बजाया जाता है। गौड़ शिकार नृत्य होता है बस्तर क्षेत्र में बस्तर के दन्तेवाड़ा क्षेत्र में, वहाँ इनको दो लोक कलाकार कमड़ में बांधकर, कमड़ को हिला हिला कर इनका वादन करते हैं।
तिनकी –
इनका तीन नाम है। अलग अलग क्षेत्रो में। बस्तर में इनको तुड़बुड़ी कहते हैं। दुर्ग और राजनानगांव जिले में डमरु कहते हैं। और कवधा जहाँ बैगा आदिवासी है, वे लोग इनको टिमकी कहते है। अलग अलग नाम और अलग अलग स्वरुप भी। कहीं छोटा, सकड़ा, मुँह के तरफ सकड़ा, कहो मुँह के तरफ बड़ा। मिट्टी का खोल होता है और गाय बैल के चमड़े से इसको मड़ा जाता है। और कमड़ में लटकाकर, दो पतली डंडी से इसको आघात करके बजाते है।
इनका एक नृत्य होता है – तुड़बुड़ी नृत्य में, और सहयोगी वाद्य जैसे – जैसे शादी विवाह होता है – उससे जैसे सब्जी नमक, वैसे शादी विवाह के समूह वाद्यों में ये नमक का काम करता है। दन्तेवाड़ा क्षेत्र में तुड़बुड़ी नृत्य माडिया आदिवासी करते हैं।
घुंघरु –
छत्तीसगड़ में बिलासपुर जिला है। उस जिले में देवार आदिवासी है। उनका लोकवाद्य है घुंघरु। ये लोग घुमन्तु होते हैं। गांव गांव में घुम घुमकर गुमटी लगाकर रहते हैं – और नाच गान करके जीवन व्यापन करते हैं – उनका ये प्रमुख वाद्य है घुंघुरु। ये लौकि, बांस, और बांस का टुकड़ा और तार से बजाते हैं – चमड़े का तार गाय और बैल के जो नस होते हैं, उनसे रस्सी तैयार किया गया है और उसी को आघात करके इसमें बजाया जाता है। इनके साथ गीत भी गाते हैं। मधुर होता है इनका आवाज़।
चिकारा –
चिकारा यह बहुत ही प्राचीन वाद्य है। जिस समय हमारे छत्तीसगढ़ में हारमोनियम नहीं था, उस ज़माने का यह वाद्य है। उस समय बुजुर्ग लोग दिन भर मेहनत करने के बाद जब शाम को घर आते थे, चौपाल में बैठकर, और निकल पड़ते थे इनको लेकर, एक खजंरी वाद्य होता था – भजन गीत गाकर अपना थकान दूर करते थे। तार वाद्य है ये। लकड़ी का खोल होता है – दो फीट का उसमें चमड़ा मड़ा जाता है। तार डालते है – और दो, हम इनका हथवा कहते हैं, घोड़े का पूंछ लगा रहता है – तारों को आघात करके बजाया जाता है।
भेर –
हमारे यहां छत्तीसगढ़ में रायगढ़ जिला है। वहाँ एक तहसी है सारंगगढ़। सारंगगढ़ क्षेत्र में भेर का उपयोग होता है – ये मांगलिक कार्य में, शादी विवाह में, पूजा-अर्चना हो रहा है, मेले में देव पूजा हो रहा है, उस समय उस स्थान को शुद्धिकरण के लिये ये प्रयोग करते हैं। बिगुल जैसे इनका आवाज़ होता है। और इनको मुँह से फुककर बजाते हैं। पाँच फिट की लम्बी पाइप जैसे, लोहे की चादर से बनी होती है। सामने के तरफ चोगा के जैसे होता है। इसको मुँह से फुककर बजाया जाता है।
मादर –
मादर को हमारे यहाँ वाद्यों का राजा कहते हैं। इसकी आवाज़ मैं एक ऐसी गमक होती है कि उस पर थाप पड़े तो जो नर्तक है, उसके पैरो में थिड़कन पैदा हो जाती है –
ये मिट्टी का एक खोल होता है, तीन फिट लम्बाई का और एक तरफ गद कहते हैं, एक तरफ तालि कहते हैं, एक तरफ दस इंच का रहता है, और एक तरफ से छे इन्च का। इसको चमड़े से दोनों तरफ मड़ा जाता है। और चमड़े के ही रस्सी से इनको खीचा जाता है। इस तरह यह तैयार होता है। लटकाने के लिए एक रस्सी होती है गले में। गले में लटकाकर और दोनों हाथ से आघात करके इसको बजाते हैं – इनकी आवाज़ बहुत ही मीठी और मधुर होती है। इनको लगभग छत्तीसगढ़ के सभी क्षेत्रों में बजाते हैं। करमा नृत्य में इसे मुख्य रुप से उपयोग करते हैं।
काकसार नृत्य होता है नरापनपुर क्षेत्र में – मुड़िया आदिवासी करते हैं। उनमें प्रमुख उपयोग होता है। उनको बजाये हुये निकलते हैं कलाकार दन्तेबाड़ा क्षेत्र में माड़िया आदिवासी निवास करते हैं। उनका एक गौड़ शिकार नृत्य होता है, उनमें इनका उपयोग करते हैं। पहले क्या होता था, आज से दो सौ साल पहले, संगीत लिपिबद्ध नहीं था, उस समय लोग अपने मन से गाते थे, आगे पीछे होते थे उस समय लगाया अपनी बुद्धि और इसका आविष्कार हुआ, और उन्होंने कहा पहले इसका वादन होगा और इसी के लय में सारे नाचने वाले, बजाने वाले, गाने वाले इसी रीदम में चलेंगे। इस तरह पूरे संगीत को सूत्रबद्ध किया। ये वही वाद्य है।
अलगोजा-
तीन या चार छिद्रों वाली बांस से बनी बांसुरी को अलगोजा या मुरली कहते हैं, अलगोजा प्रायः दो होते हैं, जिसे साथ मुंह में दबाकर फूंक कर बजाते हैं । दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं । जानवरों को चराते समय या मेलों मड़ाई के अवसर पर बजाते हैं ।
खंजरी या खंझेरी-
डफली के घेरे में तीन या चार जोड़ी झांझ लगे हो तो यह डफली या खंझेरी का रुप ले लेता है, जिसका वादन चांग की तरह हाथ की थाप से किया जाता है ।
ढोलक
यह ढोल की भांति छोटे आकार की होती है । लकड़ी के खोल में दोनो तरफ चमड़ा मढ़ा होता है, एक तरफ पतली आवास और दूसरे तरफ मोटी आवाज होती है, मोटी आवाज तरफ खखन लगा रहता है, भजन, जसगीत, पंडवानी, भरथरी, फाग आदि इसका प्रयोग होता है ।
ताशा
मिट्टी की पकी हुई कटोरी (परई) नुमा एक आकार होता है, जिस पर बकरे का चमड़ा मढ़ा होता है, जिसे बांस की पतली डंडी से बजाया जाता है, छत्तीसगढ़ में फाग गीत गाते समय नगाड़े के साथ इसका प्रयोग होता है ।
बांसुरी
यह बहुत ही प्रचलित वाद्य है, यह पोले होते हैं । जिसे छत्तीसगढ़ में रावत जाति के लोग इसका मुख्य रुप से वादन करते हैं, पंडवानी, भरथरी में भी इसका प्रयोग होता है ।
करताल, खड़ताल या कठताल
लकड़ी के बने हुए 11(ग्यारह) अंगूल लंबे गोल डंडों को करताल कहते हैं, जिसके दो टुकड़े होते हैं, दोनों टुकड़ो को हाथ में ढीले पकड़कर बजाया जाता है, तमूरा, भजन, पंडवानी गायन में मुख्यतः इसका प्रयोग होता है ।
झांझ –
झांझ प्रायः लोहे का बना होता है, लोहे के दो गोल टुकड़े जिसके मध्य में एक छेद होता है, जिस पर रस्सी या कपड़ा जिस पर रस्सी या कपड़ा हाथ में पकड़ने के लिए लगाया जाता है । दोनों एक-एक टुकड़े को एक-एक हाथ में पकड़कर बजाया जाता है ।
मंजीरा –
झांझ का छोटा स्वरुप मंजीरा कहलाता है । मंजीरा धातु के गोल टुकड़े से बना होता है, भजन गायन, जसगीत, फाग गीत आदि में प्रयोग होता है ।
मोंहरी –
यह बांसुरी के समान बांस के टुकड़ों का बना होता है । इसमें छः छेद होते हैं । इसके अंतिम सीरे में पीतल का कटोरीनुमा….. लगा होता है । एवं इसे ताड़ के पत्ते के सहारे बजाया जाता है । मुख्यतः गंड़वा बाजा के साथ इसका उपयोग होता है ।
दफड़ा –
यह चांग की तरह होता है । लकड़ी के गोलाकार व्यास में चमड़ा मढ़ा जाता है एवं लकड़ी के एक सीरे पर छेद कर दिया जाता है जिस पर रस्सी बांधकर वावदक अपने कंधे पर लटकाता है, जिसे बठेना के सहारे बजाया जाता है, इसे बठेना पतला तथा दूसरा बठेना मोटा होता है ।
निशान या गुदुंम या सिंग बाजा –
यह गड़वा बाजा साज का प्रमुख वाद्य है । लोहे के कढ़ाईनुमा आकार में चमड़ा मढ़ा जाता है । चमड़ा मोटा होता है एवं चमड़े को रस्सी से ही खींचकर कसा जाता है । लोहे के बर्तन में आखरी सिरे पर छेद होता है, जिस पर बीच-बीच में अंडी तेल डाला जाता है एवं छेद को कपड़े से बंद कर दिया जाता है । ऊपर भाग में खखन तथा चीट लगाया जाता है । टायर के टुकड़ों का बठेना बनाया जाता है, जिसे पिट-पिट कर बजाया जाता है इसके बजाने वाले को निशनहा कहते हैं । गुदुम या निशान पर बारह सींगा जानवर का सींग भी लगा दिया जाता है इस प्रकार आदिवासी क्षेत्रों में इसे सिंग बाजा कहते हैं ।